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    April 25, 2025

    महिलाओं के बिना घर नहीं चलता, देश क्या चलेगा! कुएं में मेंढक वाली सोच से बाहर निकले Foxconn.

    1 min read
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    ऐपल के लिए आईफोन बनाने वाली कंपनी फॉक्सकॉन ने बेतुका फरमान जारी किया. कंपनी ने शादीशुदा महिलाओं को नौकरी पर न रखने का फैसला किया. नौकरी के लिअ आई शादीशुदा महिलाओं के कंपनी के गेट से ही लौटा दिया गया. भारत जैसे देश में फॉक्सकॉन की ये मनमानी बहस का मुद्दा बन गई है.

    इसी साल फरवरी में देश की सर्वोच्च अदालत ने 26 साल पुराने मामले में फैसला सुनाया. कोर्ट से साफ-साफ शब्दों में कहा कि शादी के आधार पर किसी को भी नौकरी से नहीं निकाला जा सकता. महिला की शादी हो जाने के कारण उसे नौकरी न देना या नौकरी से निकाल देना लैंगिक भेदभाव और असमानता है. लेकिन लगता है कि भारत में ऐपल के लिए आईफोन बनाने वाले कंपनी फॉक्सकॉन (Foxconn) इनसे ऊपर उठ चुकी है. कंपनी ने बेतुका नियम बनाते हुए शादीशुदा महिलाओं को नौकरी पर न रखने का फैसला किया. इंटरव्यू के लिए आई महिलाओं से कंपनी के गेट पर ही सवाल किया गया कि क्या वो शादीशुदा हैं. हां में जवाब मिलते ही उन्हें वापस भेज दिया गया.

    जिस देश में महिला राष्ट्रपति, वहां नौकरी में महिलाओं के साथ भेदभाव
    जिस देश की राष्ट्रपति महिला हैं, देश की इकॉनमी की कमान महिला वित्त मंत्री के हाथों में है, जहां महिलाएं चाहे वो युवा हो, शादीशुदा हो या फिर अनमैरिड हो टेक से लेकर डिफेंस सेक्टर के छोटे से बड़े पदों पर जिम्मेदारी निभा रही हैं, वहां एक विदेशी कंपनी की मनमानी हैरान करती है. आईफोन कंपनी ऐपल के लिए असेंबलिंग का काम करने वाली ताइवानी कंपनी फॉक्सकॉन ने शादीशुदा महिलाओं के जॉब एप्लीकेशन रिजेक्ट कर दिया. कंपनी ने दलील दी कि शादीशुदा महिलाओं पर परिवार की जिम्मेदारी होती है, वो प्रेग्नेंट हो जाती है. वो गहने पहनती है, जिससे काम में दिक्कत आती है…रिजेक्शन के कारणों की लिस्ट लंबी है, लेकिन भारत जैसे देश में ये कितना सही है.

    शादीशुदा है तो क्या, काम तो बराबरी का ?
    चाहे महिला शादीशुदा हो या कुंवारी, या फिर मर्द ही क्यों न हो, जब दोनों के लिए काम एक जैसे है तो फिर नौकरी में फर्क क्यों ? ये फर्क उस सोच की वजह से आती है, जो सालों से समाज को महिला-पुरुष के पावर गेम का हिस्सा बना देती है. अब इस गेम में मैरिड और अनमैरिड फीमेल का नया कॉलम जुड़ता जा रहा है. महिलाओं खासकर शादीशुदा महिलाओं पर घर की जिम्मेदारी, ओवरटाइम की जगह नौकरी के समय की पाबंदी, कंपनी के ऊंचे पदों पर पुरुषों का वर्चस्व है, जो महिलाओं को वर्किंग प्लेस पर पीछे धकेलता है. लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि वो काबिल नहीं है. काम के लिए वो सबल नहीं है. वो किसी से कम काम करती है.

    मदरहुड के बदले कम सैलरी
    शादीशुदा महिलाओं पर दोहरी जिम्मेदारी होती है, लेकिन उनकी यही जिम्मेदारी देश की अर्थव्यवस्था के लिए नया वर्कफोर्स तैयार करती है. घर, बच्चा और करियर संभालना आसान नहीं होता. इन सबके के बावजूद शादीशुदा महिलाएं काम कर देश की इकॉनमी को बढ़ाने में सहयोग दे रही है, लेकिन जॉब इंटरव्यू के दौरान कंपनियां मैरिड वुमन ने इन मुद्दों पर सवाल करते हुए उनसे बार्गेनिंग पावर छीनती है और उन्हें कम सैलरी ऑफर की जाती है. शादीशुदा महिलाओं के लिए मदरहुड भी सजा बन जाती है. कंपनियों को महिला वर्कर को कानूनी तौर पर मैटरनिटी लीव देनी पड़ती है, ऐसे में कंपनियां पेनल्टी के तौर पर उन्हें पहले ही कम सैलरी ऑफर करने की जुगत में लगी रही रहती हैं. महिला अगर मां है तो उनकी परफॉर्मेंस और काबिलियत पर सवाल उठने लगते हैं. कई बार तो पुरुषों और अनमैरिड लड़कियों की तुलना में मैरिड और मां बन चुकी महिलाओं की सैलरी सबसे कम बढ़ती है. अमेरिका की जॉइंट इकोनोमिक कमेटी 2014 की रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं को पुरुषों से पीछे रखा जाता है,लेकिन वर्किंग मॉम को सिंगल वर्किंग वुमन से भी पीछे धकेल लिया जाता है. रिपोर्ट के मुताबिक वर्किंग मदर्स को सिंगल वर्किंग वुमन से 3% और पुरुषों से 15% तक कम वेतन मिलता है.

    कुदरत ने जो फर्क किया, समाज ने उसे खाई बना दी
    जिस देश में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का स्लोगन गली-मोहल्ले की दीवारों और गाड़ियों के पीछे इसलिए लिखा गया है कि लोग महिलाओं के प्रति अपनी सोच को बदले, उस देश में विदेशी कंपनी की ओर से किया जा रहा ये भेदभाव कितना सही है. हालांकि महिलाओं खासकर शादीशुदा महिलाओं के लिए ये दिक्कतें नई नहीं है. जेंडर सैलरी गैप का मसला गरम होता रहा है. कुदरत ने पुरुष और महिला के शारीरिक संरचना में फर्क किया, लेकिन समाज ने उस फर्क को खाई बना दी और समाज पुरुष प्रधान बन गया. महिला-पुरुष के बीच के पावर का गेम जब जॉब सेक्टर में पहुंचा तो ये खाई और गहरी होती चली गई. ‘इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन’ के अनुसार दुनिया में जहां 72% पुरुष नौकरी करते हैं, जबकि सिर्फ 47% महिलाएं ही नौकरीपेशा है. लेकिन जब सैलरी की तुलना करें तो उनकी सैलरी पुरुषों के मुकाबले आधी भी नहीं है. विदेश छोड़िए सिर्फ भारत की बात करें तो महिला कर्मचारी पुरुष कर्मचारियों के मुकाबले 35% तक कम सैलरी पा रही हैं. ये गैप हर सेक्टर में है. मॉन्स्टर सैलरी इंडेक्स के मुताबिक पुरुषों को औसतन 242.49 रुपये प्रति घंटे के हिसाब से वेतन मिलता है तो महिलाओं के लिए ये 196.3 रुपये है.

    ये सोच देश की इकोनॉमी पर भारी
    जॉब में फ्लैक्सिबिलिटी न मिलने के कारण लड़किओं खासकर शादीशुदा महिलाओं को अपने करियर से ब्रेक लेना पड़ता है. लिंक्डइन के एक सर्वे के मुताबिक कोविड के बाद नौकरी छोड़ने वाली 70 फीसदी महिलाओं ने सिर्फ इसलिए नौकरी छोड़ी क्योंकि कंपनियों में फ्लैक्सिबल पॉलिसीज नहीं थी. अगर नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS-5) की रिपोर्ट देखें तो साल 2020-21 में देश में सिर्फ 32 फीसदी विवाहित महिलाओं के पास रोजगार है. शादी के बाद 68 फीसदी महिलाओं ने खुद को सिर्फ चूल्हे-चौके में समेट लिया है. समाज और कंपनियों की ये सोच सिर्फ महिलाएं के लिए नहीं देश की इकोनॉमी पर भारी पड़ रही है. देश का एक बड़ा वर्कफोर्स, खुद को घर की चारदिवारी में समेटे हुए है. जरा सोचिए अगर ऑफिसों में इन्हें बराबरी का मौका मिले, काम के लिए फ्लैक्सिबल माहौल मिले तो देश की तरक्की में, उसकी अर्थव्यवस्था में ये कितना अहम रोल निभा सकती है. जरूरत है तो उस सोच को बदलने की, जो महिला-पुरुष , मैरिड, अनमैरिड में फर्क करती है. जब शादी की वजह से पुरुषों के काम में फर्क नहीं किया जाता तो फिर महिलाओं के साथ ऐसा क्यों ?

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