The Great Indian Family Review: विक्की और विक्टर की चौंका देने वाली फिल्म, इक बरहमन ने कहा है ये साल अच्छा है।
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विजय कृष्ण आचार्य की पिछली फिल्म ‘ठग्स ऑफ हिंदोस्तान’ हिंदी सिनेमा के दर्शक कभी नहीं भूलेंगे। ‘धूम’ सीरीज की दो फिल्में लिखने के बाद और ‘धूम 3’ के निर्देशन के बाद लगा था कि विजय का करियर सेट हो गया है। लेकिन, जीवन सेट होने का नाम नहीं है। ये लगातार प्रयोग करते रहने का नाम है। प्रयोग विफल भी होंगे लेकिन यही एक रचनात्मक व्यक्ति के सबक भी बनेंगे। और, यही नया सबक सीखकर विजय ने फिल्म बनाई है, ‘द ग्रेट इंडियन फैमिली’! कथावस्तु के हिसाब से फिल्म का नाम थोड़ा अटपटा है और इसमें एक हिंदी फिल्म के नाम जैसा आकर्षण भी नहीं है। लेकिन, ये फिल्म बहुत सटीक है। समय के हिसाब से भी और मौजूदा दौर की सियासत के हिसाब से भी नहीं। हिंदी सिनेमा के लिए जैसे फिल्म ‘ओएमजी 2’ एक शुभ संकेत रही, ‘द ग्रेट इंडियन फैमिली’ भी इसी कड़ी में वैसा ही शगुन है जैसे उत्तर भारत में संपूर्ण शाकाहारी परिवारों में भी घर से निकलते समय दादी कहती है, ‘दह्यू मछरी लेति आयो..!’
‘दह्यू मछरी लेति आयो..!’ वाला शगुन
जी हां, फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन फैमिली’ उसी भारत की है जहां ‘दह्यू मछरी लेति आयो..!’ कहना भर शगुन है। ये भावनाओं को समझाने वाला सिनेमा है औऱ विजय कृष्ण आचार्य आगे जो भी सिनेमा बनाएं, उनकी पहचान में जुड़ा ये तमगा यादगार रहेगा। एक काल्पनिक शहर बलरामपुर की ये कहानी है। मिश्रित आबादी वाला छोटा सा शहर है। इसी शहर में है रहता वेद व्यास त्रिपाठी उर्फ भजन कुमार का परिवार। पिता कर्मकांडी ब्राह्मण हैं। चाचा भी पूजा पाठ में बड़े भाई का हाथ बंटाते हैं। दोनों भाइयों की बहन भी घर का हिस्सा है। बिल्लू के नाम से पुकारे जाने वाले वेद व्यास की अपनी भजन संध्याओं को लेकर इलाके में काफी शोहरत है। चाची उसकी खुद को हेमा मालिनी से कम नहीं समझती हैं और एक बहन है जो भाई पर जान छिड़कती है। ‘द ग्रेट इंडियन फैमिली’ आम मुंबइया फिल्म नहीं है। इसे देखने के लिए आपको उसी खुले दिमाग से जाना होगा, जिस भावना के साथ हम अपने दोस्तों को व्हाट्सऐप पर ईद मुबारक के संदेश भेजते हैं।
बदलते भारत की रंगीन तस्वीर
फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन फैमिली’ समाज के हिसाब से उस बदलते भारत का दस्तावेज सरीखी है जिसमें एक ही शहर के मोहल्ले बंट चुके हैं। रंग बंट चुके हैं और इंसान, इंसान न होकर धर्मों में बंट चुके हैं। कहानी किसी बहुत ही साधारण फिल्म की तरह शुरू होती है। भजन कुमार का परिचय उन्हीं से कराते हुए फिल्म पंडिताई में चलने वाली प्रतिद्वंद्विता तक होती हुई वहां अपने असली मोड़ पर आती है जहां कहानी के नायक का अतीत घर पर आई एक चिट्ठी खोलती है। परिवार का मुखिया तीर्थयात्रा पर है, मोबाइल बंद करके। यहां बलरामपुर में सब कुछ उलट पुलट हो जाता है। धर्म की व्याख्या वस्त्रों और खानपान के तरीके से होती दिखती है और फिर…! फिर फिल्म का उच्चतम बिंदु आता है पिता-पुत्र के आपसी विश्वास के रूप में।
पिता-पुत्र के विश्वास की एक और कहानी
फिल्म ‘गदर 2’, ‘ओएमजी2’ और ‘जवान’ के बाद ‘द ग्रेट इंडियन फैमिली’ इस साल की चौथी फिल्म है, जिसका डीएनए पिता-पुत्र के रिश्ते पर टिका है। डीएनए इस फैमिली के क्लाइमेक्स का भी हिस्सा है लेकिन ये फिल्म देखकर सुकून होता है कि हिंदी सिनेमा अभी राह से भटका नहीं है। समाज से दूर नहीं हुआ है और भले ‘जयेशभाई जोरदार’ जैसी फिल्म अपना सामाजिक संदेश सही तरीके से दर्शकों को सामने परोसने में पूरी तरह विफल रही, निर्माता आदित्य चोपड़ा का ‘दम लगाके हईशा’ जैसी फिल्में बनाने का जुनून अभी थका नहीं है। आदित्य ही इस फिल्म को हरी झंडी दिखाने के लिए पहली बधाई के हकदार हैं। दूसरी बधाई आती है फिल्म के निर्देशक विजय कृष्ण आचार्य के हिस्से में। बिना हेलमेट ट्रिपल सवारी करते नौजवान जब भगवा लपेटकर चौराहे पर चेकिंग कर रहे पुलिसवालों के बीच से ‘जय श्री राम’ बोलकर निकल जाते हैं, तो ये बड़ा स्टेटमेंट भी है और धर्म के नाम पर समाज में जो कुछ हो रहा है उसका आईना भी।
हम पंडित है, श्राप दे देते हैं…
विजय कृष्ण आचार्य की हिम्मत की दाद देनी होगी कि अपनी पिछली फिल्म में बुरी तरह चोट खाने के बाद वह फिर से उठे हैं। फिर से सवार बने हैं और क्या खूब सधे हुए घुड़सवार बने हैं। ‘हम ब्राह्मण हैं, श्राप दे देते हैं तो जीवन नष्ट हो जाता है’ सरीखे संवाद बोलने वाले ब्राह्मणों के गुमान, भतीजे पर जान छिड़कने वाले चाचा के प्यार, छुप छुप कर प्यार करती बहन के दुलार और एक सख्त पिता के मोम से पिघलते गुबार को फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन फैमिली’ में विजय जिन्हें प्यार से सब विक्टर कहते हैं, ने बहुत सलीके से पेश किया है। फिल्म खाद पाती है 1992 के दंगों से उपजी हिंसा के बाद भी दो समुदायों में बने आपसी भाईचारे से। और, फिल्म को पानी मिलता है एक पुत्र के ये कहने से कि भले जिनके घर वह पला, वह उसके असली पिता न हों, लेकिन उनका अपमान वह बर्दाश्त नहीं करेगा। मौलवी के सामने ये फिल्म सवाल खड़े करती है और एक अनजान को अपने घर में पनाह देने वाली मुस्लिम महिला की दरियादिली का कमाल भी दिखाती है। सवाल उठ सकता है कि दंगाई सारे एक ही समुदाय के क्यों हैं, और बड़ा दिल दिखाने वाले सब दूसरे समुदाय के ही क्यों? लेकिन, ये सवाल भी अगर दर्शकों के दिमाग में फिल्म देखने के बाद बने रह जाते हैं तो ये सिनेमा की सफलता का प्रमाण है।
विक्की कौशल की अब तक की बेहतरीन अदाकारी
कलाकारों के मामले में ये फिल्म विक्की कौशल की फिल्म यात्रा में मील का वह बड़ा सा पत्थर है जिसके पास आने के लिए वह बार बार ललचाएंगे। ऐसे किरदार युवा कलाकारों को सौभाग्य से मिलते हैं और विक्की कौशल ने ये साबित किया है कि अगर निर्देशक सधे हुए मदारी सरीखा हो तो वह तमाशा अव्वल नंबर का दिखा सकते हैं।
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