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    April 23, 2025

    तमिलनाडु में मिलता है 69 फीसदी आरक्षण, बाकी राज्यों में कैसे चल जाता है कोर्ट का चाबुक?

    1 min read
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    चीफ जस्टिस विनोद चंद्रन की बेंच ने कई याचिकाओं पर सुनवाई के बाद यह आदेश सुनाया. याचिकाओं में नवंबर 2023 में राज्य सरकार के जातिगत गणना के बाद आरक्षण बढ़ाने को लेकर लाए गए कानूनों का विरोध किया गया था. अदालत के इस झटके के बाद अब नीतीश सरकार के आगे ओबीसी और दलितों को मनाने की चुनौती होगी.

    पटना हाई कोर्ट ने गुरुवार को नीतीश कुमार की बिहार सरकार को तगड़ा झटका देते हुए 65 फीसदी आरक्षण के फैसले को रद्द कर दिया. दरअसल नीतीश कुमार सरकार ने पिछले साल दलितों, पिछड़े वर्गों और आदिवासियों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में दिए जाने वाले आरक्षण को 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 65 फीसदी कर दिया था.

    चीफ जस्टिस विनोद चंद्रन की बेंच ने कई याचिकाओं पर सुनवाई के बाद यह आदेश सुनाया. याचिकाओं में नवंबर 2023 में राज्य सरकार के जातिगत गणना के बाद आरक्षण बढ़ाने को लेकर लाए गए कानूनों का विरोध किया गया था. अदालत के इस झटके के बाद अब नीतीश सरकार के आगे ओबीसी और दलितों को मनाने की चुनौती होगी.

    लेकिन कोर्ट ने ऐसा झटका सिर्फ बिहार को ही नहीं दिया बल्कि कर्नाटक, महाराष्ट्र और हरियाणा में भी ऐसा हो चुका है. लेकिन सिर्फ तमिलनाडु ही इकलौता ऐसा राज्य है, जहां 69 फीसदी आरक्षण दिया जा रहा है, वो भी पिछले 35 वर्षों से. सुप्रीम कोर्ट ने साल 1992 में एक ऐतिहासिक फैसला दिया था, जिसमें उसने आरक्षण की लिमिट 50 फीसदी तय कर दी थी. लेकिन अब सवाल उठता है कि बावजूद इसके कैसे तमिलनाडु में 69 फीसदी जातीय आरक्षण दिया जा रहा है.

    50 साल पुरानी है कहानी
    इसके बारे में जानने के लिए आज से 50 साल पीछे जाना होगा. तमिलनाडु में 1971 तक 41 फीसदी रिजर्वेशन दिया जाता था. जब अन्नादुरई का निधन हुआ तो कमान करुणानिधि के हाथों में आ गई. उन्होंने सत्तानाथ आयोग का गठन किया, जिसकी सिफारिश पर ओबीसी आरक्षण की सीमा 25 फीसदी से बढ़ाकर 31 कर दिया गया. इतना ही नहीं, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का कोटा बढ़ाकर 16 से 18 परसेंट कर दिया गया. इस तरह जातीय आरक्षण का गणित 49 परसेंट तक पहुंच गया.

    1980 में AIADMK सरकार को सत्ता मिली और उसने ओबीसी का कोटा 50 परसेंट कर दिया. जबकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का कोटा 18 परसेंट पहले से था. तो यह 68 फीसदी तक पहुंच गया.

    1989 में करुणानिधि सरकार सत्ता में लौटी और उसने इस कोटे में अति पिछड़ा वर्ग के लिए 20 परसेंट अलग से कर दिया. मद्रास हाई कोर्ट ने 1990 में एक फैसला दिया और SC को 18 परसेंट आरक्षण के अलावा 1 परसेंट कोटा अलग से एसटी के लिए कर दिया गया, जिससे राज्य में आरक्षण 69 परसेंट तक पहुंच गया.

    अब समझिए क्या है इंदिरा साहनी केस?
    सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी केस में एक फैसला दिया. इसके मुताबिक 50 परसेंट से ज्यादा जातिगत आरक्षण नहीं दिया जा सकता. इसके बाद जब 1993-94 में एजुकेशन इंस्टिट्यूट्स में एडमिशन की बात आई तो जयललिता सरकार ने मद्रास हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया. हाई कोर्ट ने कहा कि इस साल तो पुराने रिजर्वेशन सिस्टम से एडमिशन दिया जा सकता है. लेकिन अगले साल से 50 फीसदी की सीमा माननी होगी. इसे लेकर जयललिता सरकार सुप्रीम कोर्ट गई और एसएलपी दाखिल की. लेकिन उसे झटका लगा.

    फिर सरकार ने अपनी ये ट्रिक
    इसके बाद 1993 में जयललिता सरकार ने विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया, जिसमें प्रस्ताव पास किया गया. इस प्रस्ताव को लेकर वह उस वक्त की नरसिम्हा राव सरकार के पास गईं और तब केंद्र ने तमिनलाडु के इस आरक्षण कानून को संविधान की नौंवी सूची के तहत डाल दिया गया. दरअसल पेच ये है कि जो विषय संविधान की नौंवी सूची में हैं, उसकी अदालत समीक्षा नहीं कर सकती. अन्य राज्य सरकारें भी इसे यही मांग उठाती रही हैं.

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