2030 तक खत्म हो सकते हैं आर्कटिक के ग्लेशियर:दुनिया से 2.72 लाख टन बर्फ गायब, 20% आबादी को पानी इन्हीं से मिलता है।
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एक रिसर्च में सामने आया है कि 2030 तक आर्कटिक महासागर के ग्लेशियर पूरी तरह गायब हो सकते हैं, यानी सात साल बाद गर्मियों में यहां बर्फ नजर नहीं आएगी। आर्कटिक दुनिया के बाकी हिस्सों की तुलना में चार गुना तेजी से गर्म हो रहा है। पिछले 40 साल में गर्मी के बाद रहने वाली मल्टी लेयर बर्फ 70 लाख वर्ग किमी से घटकर 40 लाख वर्ग किमी ही रह गई है।
रिसर्चर्स के मुताबिक, इसकी वजह क्लाइमेट चेंज है। इसके चलते पिछले 10 सालों में दुनिया में मौजूद कुल ग्लेशियर का 2% हिस्सा पिघल चुका है।
दरअसल, यूरोप की क्रायोसैट सैटेलाइट ने पृथ्वी पर करीब 2 लाख ग्लेशियरों का पता लगाया है। इससे मिले डेटा के मुताबिक,जलवायु परिवर्तन के कारण 10 सालों में इन ग्लेशियरों की 2.72 लाख करोड़ टन बर्फ पिघल चुकी है। दुनिया की 20% आबादी पानी के लिए इन पर निर्भर करती है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि ग्लेशियर में कितनी तेजी से बदलाव आ रहे हैं, इसकी मॉनिटरिंग करना जरूरी है, क्योंकि लाखों लोग पीने के पानी और खेती के लिए इन पर निर्भर हैं।
ग्लेशियर में हो रहे बदलाव समझने स्पेस ऑब्जर्वेशन की मदद ली
वैसे तो नियमित रूप से कई ग्लेशियर को ग्राउंड लेवल पर ही माप लिया जाता है। ये उनका आकलन करने का सबसे अच्छा तरीका है, लेकिन जलवायु परिवर्तन से ग्लेशियर कितने बदल रहे हैं, ये देखने के लिए स्पेस ऑब्जर्वेशन (सैटेलाइट इमेज और डेटा) की मदद ली जाती है। हालांकि, ग्लेशियर में समय के साथ बड़े पैमाने पर हो रहे नुकसान को मापना किसी भी तरह की सैटेलाइट के लिए मुश्किल है।
क्रायोसैट सैटेलाइट ने कैसे पता लगाया कि बर्फ पिघली…
क्रायोसैट यूरोपियन स्पेस एजेंसी की सैटेलाइट है। इसमें ‘रडार ऑल्टीमीटर’ नाम का एक उपकरण लगा रहता है। ये उपकरण ग्लेशियर की ऊंचाई का पता लगाने के लिए ग्रह की सतह पर माइक्रोवेव पल्स भेजता है।
ये उपकरण अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड जैसे इलाकों में आसानी से काम करता है लेकिन ऊबड़-खाबड़ या घाटी वाले इलाकों में बर्फिले पहाड़ों की ऊंचाई सही से नहीं बता पाता है। हालांकि, डाटा प्रोसेसिंग में हुई प्रगति से वैज्ञानिकों ने क्रायोसैट के विजन को काफी बेहतर कर लिया है। इसका रेजुल्यूशन बढ़ाया गया जिससे ये घाटी वाले इलाकों में मौजूद बर्फिले पहाड़ों पर होने वाले बदलावों को भी ट्रैक कर सके।
सैटेलाइट डेटा से क्या पता चला…
सैटेलाइट डेटा के हिसाब से चलें तो 2010 से 2020 के बीच 89% बर्फ गर्म मौसम की वजह से पिघली। सिर्फ 11% बर्फ नैचुरल प्रोसेस के चलते, जैसे- समुद्र या झीलों के गर्म पानी में मिलने की वजह से पिघली। इसका मतलब ये हुआ कि अलग-अलग वजहों से ही सही, लेकिन बर्फ का पिघलना बदस्तूर जारी है और ये क्लाइमेट बैलेसिंग के नजरिए से अच्छा नहीं कहा जा सकता।
2010 से 2020 तक क्लाइमेट चेंज- गर्म मौसम का सबसे ज्यादा असर अलास्का के ग्लेशियरों को हुआ। यहां हर साल 80 बिलियन टन बर्फ पिघली। ये अलास्का की कुल बर्फ का 5% हिस्सा था। वहीं, आर्कटिक के स्वालबार्ड और रूस के बैरेंट्स एंड कारा सी के पास मौजूद ग्लेशियर नैचुरल प्रोसेस के चलते पिघला। क्योंकि इन ग्लेशियर्स का सिरा यहां मौजूद समुद्र में आकर मिलता है।
क्रायोसैट सैटेलाइट काफी पुरानी हो चुकी है। साइंटिस्ट्स के मुताबिक, ये कभी भी खराब हो सकता है। इसके लिए यूरोपीयन यूनियन लॉन्ग टर्म सैटेलाइट- क्रिस्टल पर काम कर रहा है।
नासा का दावा- ग्लेशियर तबाही लाएंगे
2021 में नासा ने एक रिपोर्ट में दावा किया था कि 2100 तक दुनिया का तापमान काफी बढ़ जाएगा। लोगों को भयानक गर्मी झेलनी पड़ेगी। कार्बन उत्सर्जन और प्रदूषण नहीं रोका गया तो तापमान में औसतन 4.4 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होगी। अगले दो दशक में तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। इस तेजी से पारा चढ़ेगा तो ग्लेशियर भी पिघलेंगे। इनका पानी मैदानी और समुद्री इलाकों में तबाही लेकर आएगा।
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